हास्य-व्यंग्य >> मानसरोवर के कौवे मानसरोवर के कौवेसुरेन्द्र शर्मा
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सादे वाक्यों में धारदार व्यंग्य सुख-दुख से भरे, उदास कहीं से भी नहीं, सक्रिय और प्रसन्न गद्य का सहज स्वभाव लिए...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेखक की उर्वरा नई सोच और उस सोच-संस्थापना के नए तेवर को पढ़कर एक
झटका-सा लगता है कि ऐसा तो आज तक कभी नहीं पढ़ा। यह तो परंपरागत मान्यताओं को ध्वस्त करने का दुस्साहस है ! किंतु धीरे-धीरे पाठक की विवेकबुद्धि
स्वीकार करने लगती है कि बात तो ठीक है; और यही ठीक है।
ओमप्रकाश ‘आदित्य’
मुझे यह देखकर प्रसनन्ता हुई कि सुरेन्द्र शर्मा वस्तुतः प्रगतिशील
विचारों के लेखक हैं। इन निबंधों से उनका आंतरिक व्यक्तित्व उभरता है। वे
साहसपूर्वक ऐसी बात कर सके हैं, जिसे आज का घोर प्रगतिशील भी कहने में
हिचकेगा।
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
मैं ही क्या, पूरा हिन्दी संसार इस गद्य रचना का भरपूर स्वागत करेगा और यह
पाठक और लेखक की परस्परता का एक नया इतिहास भी लिख दे तो मुझे आश्चर्य
नहीं होगा।
कमलेश्वर
आशीर्वचन
सुरेन्द्र शर्मा को मैं जानता तो वर्षों से हूँ लेकिन उनसे व्यक्तिगत
परिचय कुल पाँच छः वर्ष पुराना है। उनको अक्सर टी.वी. पर सुनता रहा हूँ।
व्यंग्य और हास्य की तीखी-चुभती कविताएं सुनाते समय वे साधक की तरह तटस्थ,
निर्विकार, चट्टान की तरह कठिन और भेदीली आँखों से अभिप्राय गुंजित अर्थ
का वायुमण्डल बना लेते हैं। इस तरह से उन्हें देखना रचना को खास
ढंग
से घटित होते हुए देखना है। कविता, सुनाने की यह बड़ी शातिर रणनीति है।
लेकिन जब उनके व्यक्तिगत संपर्क में आया तो एक सादा, दूसरों की सहायता
करने में तत्पर और पाने से अधिक खोने वाला आदमी इनके भीतर दिखा जो कहीं से
भी शातिर और रणनीतिकुशल नहीं है।
उनकी कविता से तो मेरा परिचय पुराना है लेकिन मैं उसके गद्य से परिचित नहीं था। अभी हाल ही में उनके गद्य-संकलनों ‘बुद्धिमानों की मूर्खताएं’ ‘बड़े-बड़ों के उत्पाद’ और ‘मानसरोवर के कौवे’ – को एक साथ पढ़ने का अवसर मिला।
गद्य कितना पठनीय, सहज, बिना किसी घमंड के, पानी की तरह व्यापने वाला और अन्तर्प्रेवेशी, काटने वाला लेकिन कपट रहित हो सकता है-इसका प्रमाण लगभग हर लेख में मिलता है। छोटे-छोटे सधे लेख हैं-सादे वाक्यों में धारदार व्यंग्य सुख-दुख से भरे, उदास कहीं से भी नहीं, सक्रिय और प्रसन्न गद्य का सहज स्वभाव लिए हुए यह ‘लोकप्रिय’ लेखन है। साहित्यिक हल्के में ‘लोकप्रिय’ लेखन अवमानना सूचक है जो पाठक को तत्काल मनोरंजन देकर चुक जाता है। फिर इस लेखन में गद्य में ऐसा क्या है जो मेरे भीतर के संस्कारी पाठकों को आकर्षित करता है ! जरूर कहीं कुछ ऐसा होना चाहिए कोई ऐसा ऊर्जा स्त्रोत जिसमें साहस, ईमानदारी, खतरे और संघर्ष में भी एक स्वाद होता है जो अनायास नहीं मिलता। थोड़ा बहुत यह सब में होता है कुछ थोड़े से सुविधा भोगियों और ताकत-दंभियों के अलावा। सुरेन्द्र शर्मा इसे पहचानते हैं। उनके ‘लोकप्रिय’ लेखन का महत्व इसी पहचान में निहित है रचना-दृष्टि इस बिन्दु पर संदेह हीन और स्पष्ट है एक उदाहरण-
‘‘किसके पक्ष में लिखूँ और किसके विपक्ष में लिखूँ
देश के पक्ष में लिलना चाहूँ तो मुझे देश के सारे
नेताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा।
नेताओं के खिलाफ छोड़ो इस देश की न्यायपालिका और
कार्यपालिका दोनों के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा।’’
यह दृष्टि किसी भी लेखन को साहस, ईमानदारी, खतरे और संघर्ष की ओर अनिवार्य रूप में ले जायेगी। इस ताप और अभिव्यक्ति की सादगी के साथ किया गया लेखन ‘लोकप्रिय’ होता है। यह कठिन काम है। सुरेन्द्र शर्मा ने यह कठिन काम किया है। यही कारण है कि इन गद्य-रचनाओं को पढ़ते समय मुझे बराबर लगता रहा कि इनमें आज के ताकत-दंभियों के खिलाफ संघर्ष का एक ‘लोकप्रिय’ रचना-विवेक है। यह प्रतिरोध का गद्य है जो ‘‘जनहित की चाँदमारी करने वालों’’ के विरुद्ध है और ‘लोकप्रियता’ को सार्थक सक्रिय सामूहिक रुचि में परिभाषित करता है।
उनकी कविता से तो मेरा परिचय पुराना है लेकिन मैं उसके गद्य से परिचित नहीं था। अभी हाल ही में उनके गद्य-संकलनों ‘बुद्धिमानों की मूर्खताएं’ ‘बड़े-बड़ों के उत्पाद’ और ‘मानसरोवर के कौवे’ – को एक साथ पढ़ने का अवसर मिला।
गद्य कितना पठनीय, सहज, बिना किसी घमंड के, पानी की तरह व्यापने वाला और अन्तर्प्रेवेशी, काटने वाला लेकिन कपट रहित हो सकता है-इसका प्रमाण लगभग हर लेख में मिलता है। छोटे-छोटे सधे लेख हैं-सादे वाक्यों में धारदार व्यंग्य सुख-दुख से भरे, उदास कहीं से भी नहीं, सक्रिय और प्रसन्न गद्य का सहज स्वभाव लिए हुए यह ‘लोकप्रिय’ लेखन है। साहित्यिक हल्के में ‘लोकप्रिय’ लेखन अवमानना सूचक है जो पाठक को तत्काल मनोरंजन देकर चुक जाता है। फिर इस लेखन में गद्य में ऐसा क्या है जो मेरे भीतर के संस्कारी पाठकों को आकर्षित करता है ! जरूर कहीं कुछ ऐसा होना चाहिए कोई ऐसा ऊर्जा स्त्रोत जिसमें साहस, ईमानदारी, खतरे और संघर्ष में भी एक स्वाद होता है जो अनायास नहीं मिलता। थोड़ा बहुत यह सब में होता है कुछ थोड़े से सुविधा भोगियों और ताकत-दंभियों के अलावा। सुरेन्द्र शर्मा इसे पहचानते हैं। उनके ‘लोकप्रिय’ लेखन का महत्व इसी पहचान में निहित है रचना-दृष्टि इस बिन्दु पर संदेह हीन और स्पष्ट है एक उदाहरण-
‘‘किसके पक्ष में लिखूँ और किसके विपक्ष में लिखूँ
देश के पक्ष में लिलना चाहूँ तो मुझे देश के सारे
नेताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा।
नेताओं के खिलाफ छोड़ो इस देश की न्यायपालिका और
कार्यपालिका दोनों के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा।’’
यह दृष्टि किसी भी लेखन को साहस, ईमानदारी, खतरे और संघर्ष की ओर अनिवार्य रूप में ले जायेगी। इस ताप और अभिव्यक्ति की सादगी के साथ किया गया लेखन ‘लोकप्रिय’ होता है। यह कठिन काम है। सुरेन्द्र शर्मा ने यह कठिन काम किया है। यही कारण है कि इन गद्य-रचनाओं को पढ़ते समय मुझे बराबर लगता रहा कि इनमें आज के ताकत-दंभियों के खिलाफ संघर्ष का एक ‘लोकप्रिय’ रचना-विवेक है। यह प्रतिरोध का गद्य है जो ‘‘जनहित की चाँदमारी करने वालों’’ के विरुद्ध है और ‘लोकप्रियता’ को सार्थक सक्रिय सामूहिक रुचि में परिभाषित करता है।
नित्यानंद तिवारी
सी-1, न्यू मुल्तान नगर
नई दिल्ली- 110056
सी-1, न्यू मुल्तान नगर
नई दिल्ली- 110056
बड़े बड़ो के उत्पात पर सुरेन्द्र शर्मा की कलमकारी
डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी
‘बुद्धिमानों की मूर्खताएं’ शीर्षक पुस्तक के बाद
सुरेन्द्र
शर्मा की दूसरी कृति है ‘बड़े-बड़ों के उत्पात’
शीर्षक से
प्रकाशित। इस गद्य कृति का गहराई से ईमानदारी अवलोकन करने पर जो
निर्भ्रान्त निष्कर्ष हाथ लगे हैं उनके अनुसार सुरेन्द्र शर्मा का लेखन
कोई शौकिया लेखक नहीं है। वह बयानबाजी भी नहीं करता,
‘आग्रह’
नामक दसवें ग्रह से भी कतई ग्रस्त नहीं है। वह निश्छल संवेदन शील है।
पीड़ित जनों के दर्द का सहभोक्ता है और प्राणवान शब्द क्रान्ति का एक
संवाहक हास-परिहास और व्यंग्य के साथ चाकचिक्य पैदा करते हुए गंभीर
सच्चाईयों का उद्घाटक।,
उसके मन में वह स्वाभाविक आग है जो राष्ट्र व समाज में अंधाधुंध चल रही अनैतिकता तथा अनाचार की आँधियों का स्पर्श पाकर दहक-दहक उठती, धधक उठती, किंवा भड़क पड़ती है। जीवन-मूल्यों और मर्यादाओं पर विघात करने वालों के खिलाफ वह कलम की करवाल उठा लेता है।
कवि हो या लेखक महान वही है जिसके भीतर का इंसान भी महान है अन्यथा नकलाचार्यता में, फैशनपरस्ती में, शैली-प्रवाह, कृत्रिम दार्शनिकता और धुआंधारी नपुंसक क्रान्ति की नारेबाजी की हौंस में कलम उठाए धुरंधर लेखकों कवियों और बहुविधि साहित्यकारों की कमी कहाँ है। यह कमी किसी युग में नहीं रही है। न माने तो ‘सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजः गृहे-गृहे’ की टिप्पणी करने वाले महाकवि बाणभट्ट के दर्द भरे दिल को टटोलकर देखें।
महिर्ष वाल्मीक पहले सहृयद महामानव हैं बाद में आदिकवि। उनके मुख से निर्गत विश्व की पहली कविता-‘‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वता समाः। यत्तक्रौंच मिथुनादेवमवधीः काममोहितम्’’ का सामान्य अर्थ-हे प्राणिहंता व्याध ! तुझे सौ साल के पूरे जीवन में कभी सुख-शांति नहीं मिलेगी। तूने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी जो प्रिया के प्रति कामासक्त-प्रणयमग्य था, उसे अपने बाण से बींध दिया है द्वारा केवल करुणा का उदगार कहकर न टाल दें। श्लोक में निहित एक अन्तज्रयोंति यह भी है-निषाद है भौतिकवाद, क्रौंच है जीवन मूल्य और उसके वध विलऱखती छटपाटाती क्रौंच मानवता। जब भौतिकवाद के हाथों जीवन मूल्यों का क्षरण किया जाने लगता तब मानवकता कराह उठती है उस समय सच्चे कवि की करुणा द्रविण हो उठती है दीनार्त मानवता कौंची के लिए और शाप के रूप में आक्रोश की आग फूट पड़ती भौतिकवाद के निषाद के विरुद्ध। इस प्रकारव करुणा और क्रोध के संगम से बनती है युग-युग की कविता।
केवल अश्रु प्रवाह कविता नहीं है और नहीं हैं मात्र आग की लपटें काव्य।
गोस्वामी तुलसीदास के लोकनायकत्व और ‘सुमिसरि सब सय कहं हित होई’ कि भनित’ में उनकी इंसानी खूबिया और लोक वेदना व भक्ति की अनुभूतियों का प्रतिबिम्बन है। कबीर का इंसानी युग-दाह-दुग्ध होकर खरी-खरी सुनाता है। महाप्राण निराला के विषय में कहा जाता है कि उनके इंसान और नहीं-नहीं मैं बड़ा हूँ।.ऐसे रचनाकार युगजीवी ही नहीं कालजयी भी होते हैं। जो भला आदमी नहीं है उसका लेखन चाहे सोने के अक्षरों में लिखा हो., उत्कृष्ट हो नहीं सकता, उसे तो साहित्य का कनक मृग समझना चाहिए साफ-सुथरा सुरेन्द्र शर्मा एक अदना साधक हो सकता है, किन्तु है वह पूरी तरह एक निष्ठावान इंसान। उसको मात्र मंच से नहीं पहचाना जा सकता। वह अपनी अनुभितियों में गहरा, युग-दर्शन में सावधान और निष्प्रपंच है। उसके इस प्रकृत रूप को निकट से देखना हो तो मंच की दूरी से नहीं, उसकी गद्य कृतियों का निकटता में देखिए। उसके आतंर व्यक्तित्व को विभासित करती है कृति - ‘‘बड़े-बड़ो के उत्पात।’’ सम्मेलनों मंचों से वह श्रोताओं को विनोद और लेखन कर्म से पाठकों को प्रबोध वितरित करता है।
उसके मन में वह स्वाभाविक आग है जो राष्ट्र व समाज में अंधाधुंध चल रही अनैतिकता तथा अनाचार की आँधियों का स्पर्श पाकर दहक-दहक उठती, धधक उठती, किंवा भड़क पड़ती है। जीवन-मूल्यों और मर्यादाओं पर विघात करने वालों के खिलाफ वह कलम की करवाल उठा लेता है।
कवि हो या लेखक महान वही है जिसके भीतर का इंसान भी महान है अन्यथा नकलाचार्यता में, फैशनपरस्ती में, शैली-प्रवाह, कृत्रिम दार्शनिकता और धुआंधारी नपुंसक क्रान्ति की नारेबाजी की हौंस में कलम उठाए धुरंधर लेखकों कवियों और बहुविधि साहित्यकारों की कमी कहाँ है। यह कमी किसी युग में नहीं रही है। न माने तो ‘सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजः गृहे-गृहे’ की टिप्पणी करने वाले महाकवि बाणभट्ट के दर्द भरे दिल को टटोलकर देखें।
महिर्ष वाल्मीक पहले सहृयद महामानव हैं बाद में आदिकवि। उनके मुख से निर्गत विश्व की पहली कविता-‘‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वता समाः। यत्तक्रौंच मिथुनादेवमवधीः काममोहितम्’’ का सामान्य अर्थ-हे प्राणिहंता व्याध ! तुझे सौ साल के पूरे जीवन में कभी सुख-शांति नहीं मिलेगी। तूने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी जो प्रिया के प्रति कामासक्त-प्रणयमग्य था, उसे अपने बाण से बींध दिया है द्वारा केवल करुणा का उदगार कहकर न टाल दें। श्लोक में निहित एक अन्तज्रयोंति यह भी है-निषाद है भौतिकवाद, क्रौंच है जीवन मूल्य और उसके वध विलऱखती छटपाटाती क्रौंच मानवता। जब भौतिकवाद के हाथों जीवन मूल्यों का क्षरण किया जाने लगता तब मानवकता कराह उठती है उस समय सच्चे कवि की करुणा द्रविण हो उठती है दीनार्त मानवता कौंची के लिए और शाप के रूप में आक्रोश की आग फूट पड़ती भौतिकवाद के निषाद के विरुद्ध। इस प्रकारव करुणा और क्रोध के संगम से बनती है युग-युग की कविता।
केवल अश्रु प्रवाह कविता नहीं है और नहीं हैं मात्र आग की लपटें काव्य।
गोस्वामी तुलसीदास के लोकनायकत्व और ‘सुमिसरि सब सय कहं हित होई’ कि भनित’ में उनकी इंसानी खूबिया और लोक वेदना व भक्ति की अनुभूतियों का प्रतिबिम्बन है। कबीर का इंसानी युग-दाह-दुग्ध होकर खरी-खरी सुनाता है। महाप्राण निराला के विषय में कहा जाता है कि उनके इंसान और नहीं-नहीं मैं बड़ा हूँ।.ऐसे रचनाकार युगजीवी ही नहीं कालजयी भी होते हैं। जो भला आदमी नहीं है उसका लेखन चाहे सोने के अक्षरों में लिखा हो., उत्कृष्ट हो नहीं सकता, उसे तो साहित्य का कनक मृग समझना चाहिए साफ-सुथरा सुरेन्द्र शर्मा एक अदना साधक हो सकता है, किन्तु है वह पूरी तरह एक निष्ठावान इंसान। उसको मात्र मंच से नहीं पहचाना जा सकता। वह अपनी अनुभितियों में गहरा, युग-दर्शन में सावधान और निष्प्रपंच है। उसके इस प्रकृत रूप को निकट से देखना हो तो मंच की दूरी से नहीं, उसकी गद्य कृतियों का निकटता में देखिए। उसके आतंर व्यक्तित्व को विभासित करती है कृति - ‘‘बड़े-बड़ो के उत्पात।’’ सम्मेलनों मंचों से वह श्रोताओं को विनोद और लेखन कर्म से पाठकों को प्रबोध वितरित करता है।
आलोचना का अधिकार
लोक प्रवृत्ति है दूसरों की आलोचना में रस लेने की। जो अपनी नहीं कहता,
उसे दूसरों के बारे में कहने का क्या अधिकार ? लेखक सुरेन्द्र शर्मा अपने
और उस वर्ग के विषय में भी कहने की कृपणता नहीं बरतते, जिसके साथ वे जुड़े
हैं। साफगोई का एक उदाहरण, प्रचार और पैसा हो तो धरती पर सुरेन्द्र शर्मा
जैसे लोग चहकते हैं और ये सब नहीं तो तुलसीदास जैसे महान कवि महकते
हैं।’’ हास-परिहास में ही सही तो अपनी आदत पर प्रकाश
डालते
हैं शर्मा जी यह कहकर, ‘सुरेन्द्र शर्मा के बारे में उसके मित्र
कवि, सहयोगी कवि अच्छी तरह जानते हैं कि वह पैसा तो पचा सकता है, पर बात
नहीं पचा सकता।’ पत्नी उसके लिए केवल मंचीय कविता का मंगल भवन
अमंलग
हारी की तरह संपुट नहीं है। पत्नी-भीरु योद्धा सुरेन्द्र गद्य में भी यह
कहकर अपनी पीठ ठोंक लेता है ‘महा प्रलंयकारी विध्वंस के
पर्यावाची,
तांडव नृत्यकर्ता, सर्पधारी स्वयं भगवान शंकर तक कभी पत्नी की इच्छा के
विपरीत नहीं चल पाए।’ पुस्तक में शर्मा जी के द्वारा पत्नी के
अनुशासन के पालन और उसके प्रसादन के कई प्रसंग हैं।
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